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CBSE Class 12 Hindi Core Abhivyakti Aur Madhyam Book Chapter 12 कैसे बनता है रेडियो नाटक Summary

  


कैसे बनता है रेडियो नाटक पाठ का सार (Kaise Banta Hai Radio Natak Summary)     



कैसे बनता है रेडियो नाटक पाठ सार Class 12 Chapter 12


          आज से कुछ दशक पहले एक ज़माना ऐसा भी थाजब दुनिया में न टेलीविज़न थान कंप्यूटर। सिनेमा हॉल और थिएटर थे तोलेकिन उनकी संख्या आज के  मुकाबले काफी कम होतीथी और एक आदमी के लिए वे आसानी से उपलब्ध भी नहीं थे। ऐसे समय में घर में बैठे मनोरंजन का जो सबसे सस्ता और सहजता से प्राप्त साधन थावो था–रेडियो। रेडियो पर खबरें आती थींज्ञानवर्धक कार्यक्रम आते थेखेलों का आँखों देखा हाल प्रसारित होता थाएफ.एम चैनलों की तरह गीत–संगीत की भरमार रहती थी। टी.वी. धारावाहिकों और टेलीफिल्मों की कमी को पूरा करते थेरेडियो पर आने वाले नाटक।

हिंदी साहित्य के तमाम बड़े नामसाहित्य रचना के साथ–साथ रेडियो स्टेशनों के लिए नाटक भी लिखते थे। उस समय यह बड़े सम्मान की बात मानी जाती थी।हिंदी व अन्य भारतीय भाषाओं के नाट्य आंदोलन के विकास में रेडियो नाटक की अहम भूमिका रही है। हिंदी के कई नाटक जो बाद में मंच पर भी बेहद कामयाब रहेमूलतः रेडियो के लिए लिखे गए थे। धर्मवीर भारती कृत अंधा युग और मोहन राकेश का आषाढ़ का एक दिन इसके श्रेष्ठ उदाहरण हैं।

 

रेडियो नाटक लिखे कैसे जाते हैं?

सिनेमा और रंगमंच की तरह रेडियो नाटक में भी चरित्र होते हैं उन चरित्रों के आपसी संवाद होते हैं और इन्हीं संवादों के ज़रिये आगे बढ़ती है कहानी। बस सिनेमा और रंगमंच की तरह रेडियो नाटक में विजुअल्स अर्थात दृश्य नहीं होते। यही सबसे बड़ा अंतर हैरेडियो नाटक तथा सिनेमा या रंगमंच के माध्यम में। रेडियो पूरी तरह से श्रव्य माध्यम है इसीलिए रेडियो नाटक का लेखन सिनेमा व रंगमंच के लेखन से थोड़ा भिन्न भी है और थोड़ा मुश्किल भी। आपको सब कुछ  संवादों और ध्वनि प्रभावों के माध्यम से संप्रेषित करना होता है। यहाँ आपकी सहायता के लिए न मंच सज्जा तथा वस्त्र सज्जा है और न ही अभिनेता के चेहरे की भाव–भंगिमाएँ। वरना बाकी सब कुछ वैसा ही है। एक कहानीकहानी का वही ढाँचाशुरुआत–मध्य–अंतइसे यूँ भी कह सकते हैंपरिचय–द्वंद्व–समाधान। बस ये सब होगा आवाज़ के माध्यम से।  नाट्य आंदोलन के विकास में रेडियो नाटक की अहम भूमिका रही है!

      सिनेमा और रंगमंच की तरह रेडियो एक दृश्य माध्यम नहींश्रव्य माध्यम है।

      रेडियो की प्रस्तुति संवादों और ध्वनि प्रभावों के माध्यम से होती है।

      फिल्म की तरह रेडियो में एक्शन की गुंजाइश नहीं होती।

      चूँकि रेडियो नाटक की अवधि सीमित होती है इसलिए पात्रों की संख्या भी सीमित होती है क्योंकि सिर्फ आवाज़ के सहारे पात्रों को याद रख पाना मुश्किल होता है।

      पात्र संबंधी विविध जानकारी संवाद एवं ध्वनि संकेतों से उजागर होती है। 

 

रेडियो नाटक की अवधि

आमतौर पर रेडियो नाटक की अवधि 15 मिनट से 30 मिनट होती है। इसलिए अमूमन रेडियो नाटक की अवधि छोटी होती है और अगर आपकी कहानी लंबी है तो फिर वह एक धारावाहिक के रूप में पेश की जा सकती हैजिसकी हर कड़ी 15 या 30 मिनट की होगी।

रेडियो पर निश्चित समय पर निश्चित कार्यक्रम आते हैंइसलिए उनकी अवधि भी निश्चित होती है 15 मिनट30 मिनट45 मिनट60 मिनट वगैरह।

रेडियो नाटक की अवधि का 15 मिनट से 30 मिनट के होने के दो कारण हैंश्रव्य माध्यम में नाटक या वार्ता जैसे कार्यक्रमों के लिए मनुष्य की एकाग्रता की अवधि 15-30 मिनट ही होती हैइससे ज़्यादा नहीं।

दूसरेसिनेमा या नाटक में दर्शक अपने घरों से बाहर निकल कर किसी अन्य सार्वजनिक स्थान पर एकत्रित होते हैं इसका मतलब वो इन आयोजनों के लिए एक प्रयास करते हैं और अनजाने लोगों के एक समूह का हिस्सा बनकर प्रेक्षागृह में बैठते हैं। अंग्रेज़ी में इन्हें कैपटिव ऑडिएंस कहते हैंअर्थात एक स्थान पर कैद किए गए दर्शक। जबकि टी.वी. या रेडियो ऐसे माध्यम हैं कि आमतौर पर इंसान अपने घर में अपनी मर्जी से इन यंत्रों पर आ रहे कार्यक्रमों को देखता–सुनता है।

सिनेमाघर या नाट्यगृह में बैठा दर्शक थोड़ा बोर हो जाएगालेकिन आसानी से उठ कर जाएगा नहीं। पूरे मनोयोग से जो कार्यक्रम देखने आया हैदेखेगा। जबकि घर पर बैठ कर रेडियो सुननेवाला श्रोता मन उचटते ही किसी और स्टेशन के लिए सुई घुमा सकता है या उसका ध्यान कहीं और भी भटक सकता है।

 

रेडियो नाटक में पात्रों की संख्या

रेडियो नाटक की अवधि ही सीमित हैतो फिर अपने–आप ही पात्रों की संख्या भी सीमित हो जाएगी। क्योंकि श्रोता सिर्फ आवाज़ के सहारे चरित्रों को याद रख पाता हैऐसी स्थिति में रेडियो नाटक में यदि बहुत ज़्यादा किरदार हैं तो उनके साथ एक रिश्ता बनाए रखने में श्रोता को दिक्कत होगी। 15 मिनट की अवधि वाले रेडियो नाटक में पात्रों की अधिकतम संख्या 5-6 हो सकती है। 30-40 मिनट की अवधि के नाटक में 8 से 12 पात्र। अगर एक घंटे या उससे ज़्यादा अवधि का रेडियो नाटक लिखना ही पड़ जाएतो उसमें 15 से 20 भूमिकाएँ गढ़ी जा सकती हैं। पात्रों की संख्या के मामले में बताई गईं संख्याएँ एक अंदाजा मात्र हैं। ये प्रमुख और सहायक भूमिकाओं की संख्या है। छोटे–मोटे किरदारों की गिनती इसमें नहीं की गई है। मतलबफेरीवाले की एक आवाज़ या पोस्टमैन का एक संवाद या न्यायालय में जज का सिर्फ ‘ऑर्डर–ऑर्डर’ कहना आदि।

 

रेडियो नाटक के लिए कहानी का चुनाव करते समय हमें तीन मुख्य बातों का खयाल रखना है –

      कहानी आपकी मौलिक हो या चाहे किसी और स्रोत से ली हुई। उसमें निम्न बातों का ध्यान ज़रूर रखना होगा जैसे कहानी ऐसी न हो जो पूरी तरह से एक्शन अर्थात हरकत पर निर्भर करती हो। क्योंकि रेडियो पर बहुत ज़्यादा एक्शन सुनाना उबाऊ हो सकता है।

      कहानी सिर्फ घटना प्रधान न हो।

      उसकी अवधि बहुत ज्यादा न हो (धारावाहिक की बात दीगर है)।

      पात्रों की संख्या सीमित हो। 

 

 

कैसे बनता है रेडियो नाटक पाठ का सार (Kaise Banta Hai Radio Natak Summary)

रेडियो नाटक लेखन

मंच का नाट्यालेखफिल्म की पटकथा और रेडियो नाट्यलेखन में काफी समानता है। सबसे बड़ा फर्क यही है कि इसमें दृश्य गायब हैउसका निर्माण भी ध्वनि प्रभावों और संवादों के ज़रिये करना होगा। ध्वनि प्रभाव में संगीत भी शामिल है।

अपनी बात को और बेहतर ढंग से समझने के लिए एक उदाहरण की मदद लेते हैं।

मान लीजिए दृश्य कुछ इस प्रकार का है:-

रात का समय है और जंगल में तीन बच्चेरामश्याम और मोहन रास्ता भटक गए हैं। फिल्म या मंच पर इसे प्रकाशलोकेशन / मंच सज्जाध्वनि प्रभावों और अभिनेताओं की भाव–भंगिमाओं से दिखाया जा सकता था। रेडियो के लिए इसका लेखन कुछ इस प्रकार होगा।

कट-1 या पहला हिस्सा (जंगली जानवरों की आवाजेंडरावना संगीतपदचाप का स्वर)

राम – श्याममुझे बड़ा डर लग रहा हैकितना भयानक जंगल है।

श्याम – डर तो मुझे भी लग रहा है राम! इत्ती रात हो गई घर में अम्मा–बाबू सब परेशान होंगे!

राम – ये सब इस नालायक मोहन की वजह से हुआ। (मोहन की नकल करते हुए)

जंगल से चलते हैंमुझे एक छोटा रास्ता मालूम है…

श्याम – (चौंककर) अरे! मोहन कहाँ रह गयाअभी तो यहीं था! (आवाज़ लगाकर) मोहन! मोहन!

राम – (लगभग रोते हुए) हम कभी घर नहीं पहुँच पाएँगे…

श्याम – चुप करो! (आवाज़ लगाते हुए) मोहन! अरे मोहन हो!

मोहन – (दूर से नज़दीक आती आवाज़) आ रहा हूँ! वहीं रुकना! पैर में काँटा चुभ गया था।

(नज़दीक ही कोई पक्षी पंख फड़फड़ाता भयानक स्वर करता उड़ जाता है।)

(राम चीख पड़ता है।)

राम – श्यामबचाओ!

मोहन – (जो नज़दीक आ चुका है।) डरपोक कहीं का।

राम – (डरे स्वर में) वो… वो… क्या था?

मोहन – कोई चिड़िया थी। हम लोगों की आवाज़ो से वो खुद डर गई थी। एक नंबर के डरपोक हो तुम दोनों।

श्याम – मोहन रास्ता भटका दियाअब बहादुरी दिखा रहा है…

ये दृश्य इसी तरह चलेगा।

 

रेडियो नाटक में संवाद और ध्वनि प्रभाव

रेडियो नाटक के शुरू में हमने अंक या दृश्य की जगह कट/हिस्सा लिखा है। दरअसल रेडियो नाटक में दृश्य नहीं होताइसीलिए उसकी बजाय अंग्रेज़ी शब्द ‘कट’ लिखने की परिपाटी है। वैसे ये इतना महत्त्वपूर्ण नहीं हैआप अलग–अलग दृश्यों या हिस्सों को अपने तरीके से दर्शा सकते हैं। महत्त्वपूर्ण हैं–संवाद और ध्वनि प्रभाव। शुरू में ही ध्वनि प्रभावों से जंगल या किसी खुली जगह का संकेत दे दिया हैफिर राम भी अपने संवाद में कहता है–कितना भयानक जंगल है। अर्थात ये लोग इस समय जंगल में हैं ये बात श्रोता को मालूम हो गई हैअब श्याम अपने अगले संवाद में–इत्ती रात हो गई अर्थात स्थान–जंगलसमय–रात। अगर समय और ज़्यादा स्पष्ट करना हैतो श्याम का संवाद कुछ इस प्रकार हो सकता था–रात के बारह बज गए हैंघर में अम्मा–बाबू सब परेशान होंगे। तात्पर्य यह है कि संवादों के द्वारा दृश्य का देश काल स्थापित कर सकते हैंबस शर्त यह है कि वो स्वाभाविक होना चाहिएज़बरदस्ती ठूँसा हुआ न लगे। जैसे – श्याम अगर ये संवाद कहें – रामरात के बारह बजे हैं और मुझे डर लग रहा है। साफ दिखाई देता है कि मात्र सूचना देने के अंदाश में संवाद लिखा गया है।

दृश्य हमें और क्याक्या जानकारी दे रहा है

तीन दोस्त हैं रामश्याम और मोहन। तीनों कहीं से वापस घर आ रहे थे। मोहन ने सुझाव दिया कि उसे जंगल से होकर जानेवाला कोई छोटा रास्ता पता है। तीनों ने जल्दी घर पहुँचने की ललक में वो राह पकड़ ली और अब भटक गए हैं। सबसे ज्यादा डरा हुआ राम हैडर श्याम को भी लग रहा हैलेकिन वो उस पर काबू करने की कोशिश कर रहा है। तीनों में सबसे बेफिक्र मोहन है।

रेडियो नाटक में पात्रों संबधी तमाम जानकारी हमें संवादों के माध्यम से ही मिलती हैं। उनके नामआपसी संबंधचारित्रिक विशेषताएँये सभी हमें संवादों द्वारा ही उजागर करना होता है।

भाषा पर भी विशेष ध्यान रखना होगा। वो पढ़ा–लिखा है कि अनपढ़शहर का है कि गाँव काक्या वो किसी विशेष प्रांत का हैउसकी उम्र क्या हैवो क्या रोज़गार–धंधा करता है। इस तरह की तमाम जानकारियाँ उस चरित्र की भाषा को निर्धारित करेंगी।

फिर पात्रों का आपसी संबंध भी संवाद की बनावट पर असर डालता है। एक ही व्यक्ति अपनी पत्नी से अलग ढंग से बात करेगाअपने नौकर से अलग ढंग सेआपने बॉस के प्रति सम्मानपूर्वक रवैया अपनाएगातो अपने मित्र के प्रति उसका बराबरी और गरम–जोशी का व्यवहार होगा। रेडियो क्योंकि मूलतः संवाद प्रधान माध्यम हैइसलिए यहाँ इसका खास ध्यान रखना होता है।

रेडियो में कौन किससे बात कर रहा हैहम देख नहीं पाते इसलिए संवाद जिस चरित्र को संबोधित हैउसका नाम लेना ज़रूरी होता हैखासतौर पर जब दृश्यों में दो से अधिक पात्र हों। इसके अलावा रेडियो नाटक में कई बार कोई पात्र विशेष जब कोई हरकतकोई एक्शन करता है तो उसे भी संवाद का हिस्सा बनाना पड़ता है।

उदाहरण के लिए हमारा चरित्र पार्क में है और उसे बेंच पर बैठना है तो उसका संवाद कुछ इस तरह का होगा –

कितनी गरमी है आज पार्क में। चलूँ कुछ देर इस बेंच पर बैठ जाऊँ। (और वो आह की ध्वनि करता बेंच पर बैठ जाता है।)

उपरोक्त लिखी बातों को और बेहतर ढंग से समझने के लिए हम जगदीश चंद्र माथुर जी के नाटक के एक अंश को रेडियो नाटक में रूपांतरित करते हैं।

(हास्य भाव को पेश करने वाला संगीत। संगीत मद्धम पड़ता है। अधेड़ उम्र के बाबू रामस्वरूप का स्वर उभरता है।)

बाबू – अबे धीरे–धीरे चल… (लकड़ी के तख्त की दीवार से टकराने की आवाज़।)

बाबू – अरे–अरे एक तख्त बिछाने में ड्राइंगरूम की सारी दीवारें तोडे़गा क्या?… अब तख्त को उधर मोड़ दे… अरे उधर… बसबस!

नौकर – बिछा दूँ साहब?

बाबू – (तेज़ स्वर में) और क्या करेगापरमात्मा के यहाँ अक्ल बँट रही थी तो तू देर से पहुँचा था क्या? (नकल करते हुए)… बिछा दूँ साब!… और ये पसीना किसलिए बहाया है?

(तख्त को ज़मीन पर रखने का ध्वनि प्रभावसाथ ही नौकर की हँसी का स्वर।)

नौकर – ही–ही–ही–ही।

बाबू – हँसता क्यों हैअबे हमने भी जवानी में कसरतें की हैंकलसों से नहाता था लोटों की तरह। ये तख्त क्या चीज़ हैअच्छा सुन रतनभीतर जा और बहू जी से दरी माँग लाइसके ऊपर बिछाने के लिए।

रतन – जी साब!

बाबू – (थोड़ा स्वर बढ़ाकरमानो पीछे से आवाज़ दे रहे हों।) और चद्दर भीकल जो धोबी के यहाँ से आई हैवही!

रतन – (मानो दूर से ही जवाब दे रहा हो) जी साब!

(बाबू रामस्वरूप कोई भजन गुनगुनाते हैंशायद ‘दर्शन दो घनश्यामनाथ मोरी आखियाँ प्यासी हैं’ फिर स्वयं से कहते हैं।)

बाबू – ओहोएकदम नालायक है ये रतन… देखो कैसी धूल जमी हैकुर्सियों पर… ये गुलदस्ता भीजैसे बाबा आदम के ज़माने से साफ नहीं हुआ है क्या सोचेंगे

लड़के वाले… ओफ़फोह अब ये झाड़न भी गायब हैअभी तो यहीं था… हाँ ये रहा (कपड़े के झाड़न से कुर्सी साफ करने की आवाज़ के साथ–साथ बाबूजी का एकालाप जारी रहता है।)

बाबू – आज ये लोग उमा को देख कर चले जाएँ… फिर खबर लेता हूँ… श्रीमती जी की भी… और इस गधे रतन की भी…(चौंक कर) ये क्या दोनों इधर ही आ

रहे हैं…रतन खाली हाथ!

प्रेमा – (गुस्से में) मैं कहती हूँ तुम्हे इस वक्त धोती की क्या ज़रूरत पड़ गई। एक तो वैसे ही जल्दी–जल्दी में…

बाबू – (आश्चर्य से) धोती!

प्रेमा – हाँअभी तो बदलकर आए हो…

बाबू – लेकिन तुमसे धोती माँगी किसने?

प्रेमा – यही तो कह रहा था रतन।

बाबू – क्यों बे रतनतेरे कानों में डॉट लगी है क्यामैंने कहा था–धोबी! धोबी के यहाँ से जो चादर आई हैउसे माँग ला… अब तेरे लिए दूसरा दिमाग कहाँ से

लाऊँ। उल्लू कहीं का।

प्रेमा – अच्छाजा पूजा वाली कोठरी में लकड़ी के बक्स के ऊपर धुले कपडे़ रखे हैं नउन्हीं में से एक चादर उठा ला।

रतन – और दरी बीबी जी?

प्रेमा – दरी यहीं तो रखी हैकोने में… वो पड़ी तो है।

बाबू – दरी हम उठा लेंगेतू चादर ले कर आ और सुन बीबी जी के कमरे से हारमोनियम भी लेते आना।… अब जल्दी जा।

रतन – जी साब!

बाबू – आओ तब तक हम दोनों दरी बिछा देते हैं… ज़रा पकड़ो उधर से इसे एक बार झटक देते हैं (दरी के झटकने का स्वर। बाबू जी के खाँसने का स्वर।)

बाबू – (खाँसते–खाँसते) ओ…हो… कितनी गर्द भरी है इस दरी में ये दृश्य इसी तरह चलता रहेगा। अब देखा जाए तो नाटक के आलेखऔर रेडियो के आलेख

में कोई खास फर्क नज़र नहीं आएगा। लेकिन कुछ छोटे–छोटे अंतर हैंऔर यही अंतर रेडियो नाटक के लिए काफी महत्त्वपूर्ण बन जाते हैं।


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